Edited By ASHISH KUMAR, Updated: 10 Nov, 2018 03:08 PM
शुक्रवार नामंकन पत्र दाखिल करने का अंतिम था। आखिरी दिन भाजपा के खेमें में विद्रोह के स्वर इतनी तेजी से गूंजे कि उज्जैन कार्यलय में तोड़- फोड़ तक देखने को मिली। राज्य के लगभग हर जिले में टिकट बंटवारे से नाराज कार्यकर्ता बागी होकर चुनाव मैदान में उतर...
भोपाल: शुक्रवार नामांकन पत्र दाखिल करने का अंतिम दिन था। आखिरी दिन भाजपा के खेमें में विद्रोह के सुर इतनी तेजी से गूंजे कि उज्जैन कार्यलय में तोड़-फोड़ तक देखने को मिली। राज्य के लगभग हर जिले में टिकट बंटवारे से नाराज कार्यकर्ता बागी होकर चुनाव मैदान में उतर गए हैं। नाराज नेताओं को मनाने का कोई भी तोड़ प्रदेश की भाजपा सरकार के पास नहीं है। विधानसभा के इस चुनाव में ऐसे नेता की कमी बीजेपी का हर छोटा-बड़ा कार्यकर्ता महसूस कर रहा है।
लगातार 15 साल तक सत्ता में रहने के बाद भाजपा का पुराना चेहरा धुंधला हो चुका है। यह सच्चाई है कि भाजपा का सबसे मजबूत गढ़ माने जाने वाले मध्यप्रदेश में अब ऐसे नेता नहीं बचे हैं, जो रूठों को मनाने का दम रखते हों। वर्ष 2003 के चुनाव के दौरान भाजपा के पास ऐसे नेता थे, जिनका जादू रुठे नेताओं और कार्यकर्ताओं पर चल जाता था। जिनमें मुख्य तौर पर अनिल माधव दवे की कमी इस चुनाव में महसूस की जा रही है। दवे के निधन के बाद आज तक पार्टी में उनकी जगह कोई नहीं ले पाया है।
दवे की रणनीति के कारण ही वर्ष 2008 और वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में किसी नेता या कार्यकर्ता की बगावत देखने को नहीं मिली थी। कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी कभी बाहर नहीं आई थी। एक समय था जब मध्यप्रदेश में भाजपा उसके अनुशासन के लिए जानी जाती थी। लेकिन पिछले चुनाव में लगातार जीत ने पार्टी की काया पलट कर दी है।