Edited By Vikas Tiwari, Updated: 06 Sep, 2023 08:02 PM
वर्ष 1972 से लेकर 1978 के बीच कान्हा नेशनल पार्क की स्थापना के समय 20 वन ग्रामों को बेदखल किया गया था। जिन्हें अब तक ना तो मुआवजा दिया गया है, और न उनके पुनर्वास के इंतजाम किए गए हैं। जिसके चलते बेदखल किए गए वन ग्रामों के ग्रामीण आज भी मुआवजा और...
बालाघाट (हरीश लिल्हारे): वर्ष 1972 से लेकर 1978 के बीच कान्हा नेशनल पार्क की स्थापना के समय 20 वन ग्रामों को बेदखल किया गया था। जिन्हें अब तक ना तो मुआवजा दिया गया है, और न उनके पुनर्वास के इंतजाम किए गए हैं। जिसके चलते बेदखल किए गए वन ग्रामों के ग्रामीण आज भी मुआवजा और ग्रामों के विस्थापन की रहा देख रहे हैं। इसी तरह ताम्र परियोजना मलाजखंड की स्थापना के समय जिन वन ग्रामों को बेदखल लोग भी अपने अधिकारों से वंचित हैं। मूलभूत सुविधा ,नौकरी,और अन्य मांग पूरी न होने पर ग्रामीणों ने विधानसभा और लोकसभा चुनाव का बहिष्कार करने की चेतावनी दे दी है।
कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के आसपास और मलाजखंड ताम्र परियोजना की सीमा से सालों पहले बेदखल किए गए दर्जनों परिवारों ने मंगलवार को किए वादों को पूरा करने की मांग दोहराई। इस संबंध में उन्होंने रैली निकाली और शहर के अलग-अलग मार्गों से होते कलेक्ट्रेट पहुंचे। जहां उन्होंने कलेक्टर को मांगों को लेकर ज्ञापन सौंपा। ज्ञापन के माध्यम से बताया गया कि वर्ष 1972 से 1978 के बीच कान्हा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापन के वक्त बालाघाट सीमा में आने वाले आसपास के 20 वनग्रामों को बेदखल किया गया था। इसी तरह मलाजखंड ताम्र परियोजना की स्थापना के समय बड़ी संख्या में आसपास के आदिवासी ग्रामीणों को बेदखल किया गया था। उस समय त्रिपक्षीय समझौता किया गया था। इस समझौते में तत्कालीन कलेक्टर स्वामीनाथन, पूर्व विधायक स्व गनपत सिंह उइके तथा मलाजखंड ताम्र परियोजना के प्रबंधक थे। समझौते के तहत बेदखल किए जा रहे परिवारों को एक माडल टाउनशिप निर्माण कर प्रत्येक परिवार को बसाने का वादा किया गया था। जो आज तक पूरा नहीं हुआ। जिसको लेकर अब ग्रामीण चुनाव बहिष्कार के राह पर हैं। ग्रामीणों का कहना है कि अगर हमारी मांगों पर विचार नहीं किया गया तो आने वाले वक्त में वे विधानसभा औऱ लोकसभा चुनावों का बिहष्कार करेंगे।
एक तरफ प्रसिद्ध राष्ट्रीय कान्हा नेशनल पार्क और दूसरी तरफ एशिया प्रसिद्ध मलाजखंड ताम्र परियोजना अपनी -अपनी कार्यप्रणाली के लिए शानदार शिखर पर हैं। लेकिन इसके पीछे का काला अध्याय ही कहेंगे, कि लगभग 50 वर्षो से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे बेदखल आदिवासी ग्रामीण आज भी मोहताज हैं। जिन पर तरस तो सब खा रहे हैं। लेकिन इनके दर्द का माकूल इलाज शासन-प्रशासन आज तक नहीं कर पाया है।