Edited By meena, Updated: 31 Jul, 2019 12:24 PM
इंदौर की शाहबानों अगर जिंदा होती तो उनके मन को आज बड़ा सुकून मिलता। जिस लड़ाई की उन्होंने शुरुआत की थी उन्हें सात साल बाद जीत तो मिल गई लेकिन तत्कालीन सरकार की वजह से उन्हें हक नहीं मिल पाया था। अब जब 33 साल बाद उन्हें न्याय मिला तो वह उसे देखने के...
भोपाल: इंदौर की शाहबानो अगर जिंदा होती तो उनके मन को आज बड़ा सुकून मिलता। जिस लड़ाई की उन्होंने शुरुआत की थी उन्हें सात साल बाद जीत तो मिल गई लेकिन तत्कालीन सरकार की वजह से उन्हें हक नहीं मिल पाया था। अब 33 साल बाद उन्हें न्याय मिला तो वह उसे देखने के लिए जिंदा नहीं है। लेकिन आज उनकी आत्मा को जरुर सुकुन मिलेगा। आज करोडों मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से आजादी मिली है, इस लड़ाई की शुरुआत शाहबानों ने ही की थी।
राज्यसभा में तीन तलाक बिल पास हो गया है। बिल के पक्ष में 99 और विफक्ष में 84 वोट पड़े हैं। राज्यसभा में तीन तलाक का बिल पास होने के बाद मुस्लिम महिलाओं को अब इससे आजादी मिल गई है। लेकिन सदन में वोटिंग के दौरान कई बड़े दलों के नेताओं ने इसका बहिष्कार किया था। सबसे पहले शाहबानों ने ही तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाई थी, लेकिन राजीव गांधी सरकार के एक फैसले की वजह से उसे हक नहीं मिल पाया था। पूरे भारत में तीन तलाक की आवाज उठाने वाली शाहबानों प्रथम महिला था। पांच बच्चों की मां शाहबानों इंदौर की रहने वाली थी । साल 1978 में उसके पति मोहम्मद खान ने तलाक दे दिया था। वहीं इस्लामिक लॉ के मुताबिक पति अपनी मर्जी के खिलाफ ऐसा कर सकता था, लेकिन खुद और बच्चों के भरण पोषण के लिए शाहबानों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई क्योंकि बच्चों को पालना उनके लिए मुश्किल हो रहा था।
सुप्रीम कोर्ट में मिली थी जीत:
साल 1978 में जब शाहबानो तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गईं, तब वो 62 साल की थीं। पति ने दूसरी पत्नी लाने की वजह से शाहबानो को छोड़ दिया था। पहले तो वह शाहबानो को कुछ गुजारा भत्ता दे दिया करता था, लेकिन बाद में शौहर ने सब देना बंद कर दिया। मामला कोर्ट में चल रहा था, सुप्रीम कोर्ट ने 23 अप्रैल साल 1985 को चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपना फैसला शाहबानो के पक्ष में दिया। सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान को अपनी पहली पत्नी को हर महीने 500 रुपए का गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने किया था विरोध:
वही तब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का मुस्लिम संगठनों ने विरोध करना शुरू कर दिया था। साल 1973 में बने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध किया था। सरकार इनके विरोध के आगे झुक गई थी। इतना ही नहीं इसके बाद सरकार पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप भी लगा।
राजीव गांधी सरकार की वजह से नहीं मिला हक:
इधर, जब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसका विरोध कर रही थी, तब केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी। राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 पारित कर दिया। इस अधिनियम के जरिए सर्वोच्च न्यायलय के फैसले को ही पलट दिया।
ब्रेन हेमरेज से हुई शाहबानो की मौत:
बहरहाल, अब इस फैसले के आने के बाद से तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं में खुशी का माहौल है, लेकिन इसे देखने के लिए शाहबानो इस दुनिया में नहीं हैं। दरअसल, ढलती उम्र की वजह से शाहबानो बीमार रहने लगी थीं। जानकारी मुताबिक पति से तलाक के बाद ही उनकी सेहत बिगड़ने लगी थी। इसके बाद साल 1992 में ब्रेन हैमरेज से शाहबानो की मौत हो गई।