Edited By meena, Updated: 30 May, 2025 02:44 PM

प्राथमिक कृषि साख सहकारी संस्था मर्यादित, मेहगांव में एक बड़े वित्तीय घोटाले का खुलासा हुआ है...
डबरा (भरत रावत) : प्राथमिक कृषि साख सहकारी संस्था मर्यादित, मेहगांव में एक बड़े वित्तीय घोटाले का खुलासा हुआ है। संस्था के सेवा से पृथक किए गए सहायक समिति प्रबंधक दीपक भार्गव पर 10.69 लाख रुपए के गबन, खाद की कालाबाजारी और अन्य वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप में थाना गिजोर्रा पुलिस ने मामला दर्ज किया है। एफआईआर भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 409 एवं आवश्यक वस्तु अधिनियम 3/7 के अंतर्गत पंजीबद्ध की गई है।
शिकायतकर्ता एवं वर्तमान समिति प्रबंधक मृदुल गोरख द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों के आधार पर खुलासा हुआ कि दीपक भार्गव ने डीएपी खाद वितरण में धांधली की, संस्था खातों से सदस्यों की राशि का गबन किया, किसानों से वसूली की गई राशि संस्था में जमा नहीं की तथा निलंबन अवधि में नियमविरुद्ध वेतन भी आहरित किया।
जांच में यह भी स्पष्ट हुआ कि खाद वितरण से संबंधित कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किए गए और अब तक 3.12 लाख की राशि बकाया है। साथ ही 4.85 लाख खाताधारकों को लौटाए बिना उपयोग किए गए और किसानों से ली गई 1.47 लाख की राशि भी जमा नहीं की गई। दीपक भार्गव द्वारा निलंबन के दौरान 1.24 लाख का वेतन भी अनुचित रूप से लिया गया। यह अकेला मामला नहीं है, बल्कि एक बड़ी समस्या की बानगी है।

मध्य प्रदेश में सहकारी संस्थाओं में घोटाले कोई नई बात नहीं हैं। विगत वर्षों में एक के बाद एक वित्तीय अनियमितताओं और घोटालों की लंबी श्रृंखला सामने आती रही है। परंतु दुर्भाग्यवश, अधिकतर मामलों में आरोपियों को सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है, जिससे ऐसे कदाचारों को बढ़ावा मिलता है।ग्वालियर जिला विशेष रूप से इस समस्या से प्रभावित रहा है, जहां कई समितियों में बड़े पैमाने पर घोटाले उजागर हुए हैं। बावजूद इसके, दोषियों पर दृढ़ दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाती। यह स्थिति किसानों के हितों के साथ खुला खिलवाड़ है और सहकारिता की मूल भावना को आघात पहुंचाती है।
यदि सहकारिता में कड़ाई से कार्रवाई होती, दोषियों को केवल निलंबन या चेतावनी की बजाय वास्तविक दंड व कानूनी सजा दी जाती, तो आज किसानों का भरोसा मजबूत होता और सहकारिता संस्थाएं वाकई में उनके आर्थिक सशक्तिकरण का माध्यम बनतीं।
यह मामला न केवल एक व्यक्ति की अनियमितता का प्रश्न है, बल्कि यह सहकारिता तंत्र की जवाबदेही, पारदर्शिता और शासन की प्रतिबद्धता पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है। अब देखना यह है कि प्रशासन इस मामले को उदाहरण बनाकर आगे की नीति में सुधार करता है या यह भी अन्य मामलों की तरह फाइलों में दफन हो जाएगा।