बेटी की लाश सीने से लगाए रोते-बिलखते मां-बाप! बस में तय किया अंतिम सफर, न सरकार और न समाज ने दिया साथ

Edited By meena, Updated: 18 Aug, 2025 03:38 PM

in khairagarh parents travelled in a bus with their daughter s dead body

छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ से सामने आया यह मामला सिर्फ एक व्यक्तिगत दुख नहीं है...

खैरागढ़ (हेमंत पाल) : छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ से सामने आया यह मामला सिर्फ एक व्यक्तिगत दुख नहीं है, बल्कि यह सरकारी संवेदनहीनता और सामाजिक संकीर्णता की एक ऐसी मिसाल है, जो हर संवेदनशील दिल को झकझोरने के लिए काफी है। ग्राम मोगरा के रहने वाले गौतम डोंगरे और उनकी पत्नी कृति डोंगरे रोज़ी-रोटी के लिए हैदराबाद में मजदूरी करते हैं। उनकी दो वर्षीय मासूम बेटी बीमार हुई, तो वे तुरंत उसे लेकर छत्तीसगढ़ लौटने को मजबूर हो गए। लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था।

हैदराबाद रेलवे स्टेशन से चली ट्रेन में ही मासूम ने अंतिम सांस ली- वह भी पिता की गोद में। उस पल में जो टूटा, वह सिर्फ दिल नहीं था, एक परिवार की दुनिया बिखर गई। राजनांदगांव स्टेशन पहुंचने पर गौतम ने छत्तीसगढ़ सरकार की ‘मुक्तांजलि शव वाहन सेवा’ को कॉल किया, ताकि बेटी के शव को गांव मोगरा तक ले जा सकें। पर जवाब मिल मृत्यु अगर सरकारी अस्पताल में हो तो शव को घर तक पहुंचाया जाता है। ऐसे में सवाल उठे कि - क्या एक बच्ची की मौत सिर्फ इसलिए सम्मान के योग्य नहीं कि उसकी मौत अस्पताल में नहीं हुई? क्या एक पिता की पुकार सरकारी नियमों की दीवार से टकराकर लौट जानी चाहिए?

एक पिता की बेबसी, बेटी की लाश को सीने से लगाकर तय किया सफर

सरकार द्वारा चलाए जा रहे शव वाहन सेवा के बड़े-बड़े वादे और विज्ञापन इस परिवार के आंसुओं में बह गए। सरकारी सहायता के अभाव में, गौतम और कृति ने अपनी बेटी की लाश को सीने से लगाकर आम बस से खैरागढ़ तक का सफर किया। यह सिर्फ एक सफर नहीं था- यह बेबसी, लाचारी और टूटी उम्मीदों की यात्रा थी।

खैरागढ़ बस स्टैंड पर जब बस रुकी, तब समाजसेवी हरजीत सिंह ने सामने आकर इंसानियत का हाथ बढ़ाया। उन्होंने न सिर्फ परिवार को घर तक पहुंचाया, बल्कि अंतिम संस्कार तक साथ निभाया। आज जब संवेदनाएं गुम होती जा रही हैं, हरजीत जैसे लोग ही समाज में उजाला बनाए हुए हैं।

प्रेम विवाह बना बहिष्कार का कारण-गांव का मौन, समाज की चुप्पी

गौतम डोंगरे का गुनाह यह नहीं कि वह गरीब है, उसका सबसे बड़ा "अपराध" यह था कि उसने अपने गांव की लड़की से प्रेम विवाह किया था। गांव के रीति-रिवाजों और जातीय जंजीरों में जकड़े समाज ने उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिया। बेटी की मौत पर भी कोई गांववाला उनका दुख बांटने नहीं आया। अंतिम संस्कार में सिर्फ गौतम, उनके ससुर, हरजीत सिंह, जगदीश साहू और राजकुमार साहू शामिल हुए। एक मासूम के लिए इतना ही समाज बचा था।

ऐसे में खुद से पूछना होगा

क्या यही है हमारी सभ्यता? क्या यही है वह नवभारत जिसकी हम बात करते हैं? सरकार का दावा है कि ‘मुक्तांजलि’ योजना अंतिम यात्रा में सरकार की सहभागिता का प्रतीक है। पर क्या ऐसी योजना का कोई अर्थ है, जो सिर्फ कागज़ी मौत मानती है? इसके अलावा 21वीं सदी में भी अगर प्रेम विवाह को सामाजिक बहिष्कार का कारण बनाया जाता है, अगर एक परिवार के दुःख में गांववालों की मौजूदगी नहीं, बल्कि दूरी हो, तो ये न सिर्फ उस समाज की हार है, बल्कि हमारी सोच की पराजय है।

बेटी की चिता बुझी, पर सवाल जलते रहेंगे...

गौतम डोंगरे की मासूम बेटी अब इस दुनिया में नहीं रही। लेकिन उसकी मौत ने सरकार के नियमों, और समाज की सोच पर एक स्थायी सवाल खड़ा कर दिया है — क्या मरने के बाद भी इंसान को सम्मान नहीं मिलेगा, अगर वो गरीब है या प्रेम करने वाला है?

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