क्या बगावत के रास्ते पर चलने के लिए तैयार हैं गोपाल भार्गव?

Edited By meena, Updated: 01 Jun, 2020 03:47 PM

is gopal bhargava ready to walk the path of revolt

प्रेमचंद गुड्डू द्वारा दलबदल को कोसते हुए उन्होंने राजनीतिक शुचिता का जो पाठ पढ़ाया, वह कांग्रेस के लिए कम बल्कि भाजपा के लिए ज्यादा प्रासंगिक नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था, मानो गोपाल भार्गव के निशाने पर अगर 10 फीसदी कांग्रेस है...

मध्यप्रदेश डेस्क(हेमंत चतुर्वेदी): प्रेमचंद गुड्डू द्वारा दलबदल को कोसते हुए उन्होंने राजनीतिक शुचिता का जो पाठ पढ़ाया, वह कांग्रेस के लिए कम बल्कि भाजपा के लिए ज्यादा प्रासंगिक नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था, मानो गोपाल भार्गव के निशाने पर अगर 10 फीसदी कांग्रेस है, तो 100 फीसदी उनकी अपनी पार्टी भाजपा है, जिसने दो महीने पहले ही व्यापक स्तर पर दलबदल के बाद प्रदेश की सत्ता अपने नाम की है।

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ज्यादा पीछे मत जाइए, सिर्फ 5 महीने पहले की ही बात है, अपनी विधानसभा क्षेत्र रहली में एक संबोधन के दौरान गोपाल भार्गव ने जो कहा था, वह रहली से लेकर भोपाल और दिल्ली तक जमकर सुर्खियों का कारण बना। उनका कहना था, कि अगर विधानसभा चुनाव में भाजपा के 4 से 5 विधायक और आ जाते, तो क्या पता उन्हीं के क्षेत्र का विधायक मुख्यमंत्री होता। पता नहीं ये बात गोपाल भार्गव ने क्या कुछ अनुमान लगाकर कही थी, क्या वाकई उन्होंने सत्ता के नजदीक पहुंचने वाली स्थिति में शिवराज का पत्ता काटने की व्यवस्था बना ली थी ? या फिर यह बात सिर्फ एक मजाक था ? खैर गोपाल भार्गव के इस दावे का क्या उद्देश्य था, वह तो वही जानें, लेकिन इस दावे के साइड इफैक्ट जरूर नजर आने लगे हैं, और मौजूदा दौर में उनके साथ वही हालात पेश आ रहे हैं, जो अक्सर सियासत का कोई सिकंदर अपने प्रतिद्वंदी के साथ करता है। 

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अब एक दिन पहले के गोपाल भार्गव के बयान पर गौर कीजिए, प्रेमचंद गुड्डू द्वारा दलबदल को कोसते हुए उन्होंने राजनीतिक शुचिता का जो पाठ पढ़ाया, वह कांग्रेस के लिए कम बल्कि भाजपा के लिए ज्यादा प्रासंगिक नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था, मानो गोपाल भार्गव के निशाने पर अगर 10 फीसदी कांग्रेस है, तो 100 फीसदी उनकी अपनी पार्टी भाजपा है, जिसने दो महीने पहले ही व्यापक स्तर पर दलबदल के बाद प्रदेश की सत्ता अपने नाम की है। प्रदेश की राजनीति के पुराने चावल में से एक गोपाल भार्गव के इस बयान को हम उनकी नासमझी या भूल भी करार नहीं दे सकते, इसे सुनकर ऐसा लग रहा था, मानो अब वह यह समझ गए हैं, कि भाजपा में उनको जो मिलना था वह मिल गया, इससे ज्यादा की उम्मीद और अपेक्षा दोनों बेमानी है, और भार्गव इस बात को भी अच्छी तरह से जानते हैं, कि राजनीति में कुछ हासिल करने का अंतिम जरिया बगावत होती है, और वह इस रास्ते पर चलने के लिए तैयार है। 

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वैसे एक ही पार्टी में दशकों की राजनीति और एक सम्मानजनक सियासी कद अक्सर किसी राजनेता के लिए बगावत जैसी स्थिति को मुश्किल बना देता है। लेकिन प्रदेश में पिछले कुछ दिनों के राजनीतिक घटनाक्रम के दौरान गोपाल भार्गव के सामने जो स्थिति पेश आई है, वह हर स्तर पर भाजपा के भीतर उनकी उपेक्षा को दर्शाती है, अब इस बात को ऐसे ही समझ लीजिए कि कल तक जो राजनेता विधानसभा नंबर में हेर फेर होने की स्थिति में खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बता रहा था, आज वह अपनी ही पार्टी की सरकार में मंत्रिमंडल तक का सदस्य नहीं है, और तो और शिवराज कैबिनेट के अगले विस्तार में भी उनका नाम कयासों झूल रहा है, क्योंकि सागर जिले से जहां गोविंद सिंह को मंत्री बनाया जा चुका है, तो भूपेंद्र सिंह के लिए भाजपा की पूरी सिंह लॉबी मैदान में जमी हुई है, इसके अलावा गोपाल भार्गव ही ऐसे नेता बचते हैं जिनका न तो पार्टी में कोई गॉड फादर है और न पार्टी का उनसे कोई कमिटमेंट। हालांकि ऐसी स्थिति बहुत कम ही है, जब भाजपा उन्हें इस स्तर पर उपेक्षित करने का कदम उठाए। लेकिन इस तरह की संभावना को टटोलते हुए उन्होंने पहले ही यह संकेत दे दिए हैं, कि अगर उन्हें उपेक्षित करने की कोशिश की गई, तो वह कोई फैसला लेने में हिचकिचाएंगे नहीं, फिर भले ही वह फैसला बगावत का क्यों न हो। 

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आखिर कौन हैं गोपाल भार्गव का खलनायक?
वैसे तो राजनीति में मुख्य तौर हालातों को ही खलनायक माना जाता है, लेकिन गोपाल भार्गव के मामले में बात करें, तो एक के पीछे एक नाम और स्थिति उनके ढलते सियासी रसूख के पीछे जिम्मेदार हैं। इनमें सबसे अधिक हाथ है बतौर नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ सरकार के प्रति उनके ढुलमुल रवैये का। सूत्रों के मुताबिक, भार्गव का यह रवैया भाजपा संगठन को कतई रास नहीं आया, और इसे लेकर कहीं कहीं तो फिक्सिंग की बात तक चर्चा में आ गई, उसी दिन से पार्टी में भार्गव की उल्टी गिनती शुरू हो गई। इस दौरान खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार बताकर गोपाल भार्गव ने अनचाहे तौर पर शिवराज सिंह चौहान को भी अपना प्रतिस्पर्धी बना लिया, जिसका असर आज देखने को मिल रहा है, और वह अपनी ही पार्टी की सरकार बनने के लगभग ढाई महीने बाद भी सरकार का हिस्सा नहीं है। इसके अलावा किसी बड़े नेता का बरहस्त न होना भी गोपाल भार्गव के लिए परेशानी का सबब बन रहा है। 
 

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